'झूठ' शब्द - दिनचर्या में शामिल है यह शब्द


दिनचर्या में शामिल है शब्द ' झूठ ' - मैं झूठ नहीं बोलती

'झूठ' एक ऐसा शब्द है जो हम लगभग रोज ही उपयोग में लाते हैं, हम झूठ न भी बोलें, फिर भी यह शब्द दिनचर्या में शामिल है।

वैसे यदि मैं आपसे कहूँ कि मैं झूठ नहीं बोलती, तो आपमें से शायद ही कोई ऐसा हो जो इस बात पर विश्वास करे।  हाँ, यदि मैं कहूँ कि मैं ऐसा झूठ नहीं बोलती जिससे किसी को दुःख पहुँचे, तो सभी इस बात से सहमत हो सकते हैं। दुनिया में शायद ही कोई हो, जिसने कभी भी झूठ न बोला हो।

हम अपने पूर्वजों से हमेशा सुनते आए हैं कि झूठ नहीं बोलना चाहिए और साथ ही यह भी कि किसी को बचाने के लिए बोला गया 'झूठ'  'झूठ'  नहीं होता। अब मन में यह द्वन्द्व चलता रहता है कि कब और कहाँ सच बोलें और कहाँ झूठ। ये बात अलग है कि सबसे अधिक झूठ स्वयं के भले के लिए ही बोले जाते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल केअनुसार-"जब हमारी इंद्रियाँ दूर से आती हुई क्लेशकारिणी बातों का पता देने लगती हैं, जब हमारा अन्तःकरण हमें भावी आपदा का निश्चय कराने लगता है; तब हमारा काम दुःख मात्र से नहीं चल सकता बल्कि भागने या बचने की प्रेरणा करने वाले भय से चल सकता है। इसी प्रकार अच्छी लगने वाली वस्तु या व्यक्ति के प्रति जो सुखानुभूति होती है उसी तक प्रयत्नवान् प्राणी नहीं रह सकता, बल्कि उसकी प्राप्ति, रक्षा या संयोग की प्रेरणा करने वाले लोभ या प्रेम के वशीभूत होता है।"  मोटे तौर पर यह दो बहुत बड़े कारण होते हैं झूठ बोलने के।

जन प्रतिनिधि, धार्मिक प्रतिनिधि, उद्योगपति , अधिकारी, कर्मचारी, संवाददाता, सेल्समेन सभी अपने लाभ के लिए झूठ बोलते हैं।

यदि आपने फ़िल्म "क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता" देखी है, तो आपने देखा होगा कि जब नायक गोविंदा सच बोलने लगता है, तब उसे कई लोगों की नाराजगी का शिकार होना पड़ता है। इस प्रकार सच बोलना भी हानिकारक हो सकता है।


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कुछ लोग आदतन झूठ बोलते हैं, उन्हें झूठ की ऐसी आदत होती है कि वे बाएँ जा रहे होंगे , तो दाएँ बताएँगे। कुछ  झूठ के द्वारा एक सच स्थापित कर लेते हैं तथा झूठ को ही सच मानने लगते हैं। कुछ दिखावे के लिए, कुछ आत्मरक्षा के लिए और कुछ शांति से जीने के लिए भी झूठ का सहारा लेते हैं।

यदि कोई सुंदर न होते हुए भी हमसे पूछे -" मैं कैसी लग रही हूँ ?" तो चाहे-अनचाहे हम बहुत सुंदर ही कहेंगे। यह झूठ है, पर यहाँ किसी की खुशी सच से ऊपर है।

मनोविकारों से झूठ का जन्म हुआ है या झूठ से मनोविकारों का ? क्या झूठ भी मनोविकारों की सूची में आता है ? इन प्रश्नों के उत्तर विस्तृत हो सकते हैं। स्वयं के लोभ, मोह, भय आदि मनोविकारों से झूठ का जन्म होता है और हमारे झूठ से दूसरों के मन में विकार उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे- किसी की झूठी शान से ईर्ष्या, सुख के झूठे वचनों से लोभ और मोह, शक्ति के झूठे प्रदर्शन से भय या क्रोध। यह तब होता है जब सामने वाले के झूठ को सच समझा जाए।इस प्रकार झूठ और मनोविकारों का गहरा संबंध है तथा झूठ की गिनती भी मनोविकारों में हो सकती है।

निष्कर्ष यही है कि यदि सच से किसी को दुःख पहुँचे या किसी की हानि होती हो, तो झूठ बोलना ही सही है। हम सब कभी-न-कभी झूठ बोलते ही हैं।

अंत में फ़िल्म "झूठी" का गीत- 

रूक जरा थम,

सच बोल जरा कम,

इस झूठ में है 

यार बड़ा दम।



डॉ. मीता माथुर

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